History of Pasi Samaj

शूरवीर पासी: एक कृतज्ञ स्मृति

“पासी” शब्द हिन्दी के दो शब्दों से मिलकर बना है - पा + असि। पा का अर्थ है “मजबूत कलाई” और असि का अर्थ है “तलवार”। इस प्रकार पासी का शाब्दिक अर्थ है मजबूत कलाई से तलवार धारण करने वाला व्यक्ति अथवा योद्धा। पासियों के योद्धा, वीर, पराक्रमी और बहादुर होने की बात उनके अतीत के अध्ययन से पूरी तरह सिद्ध होती है।

पासी भारत के मूल निवासी हैं

उत्तर प्रदेश के विभिन्न जनपदों के प्राचीन इतिहास के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि जनपद फैजाबाद, बाराबंकी, बहराइच, लखनऊ, रायबरेली, सीतापुर, हरदोई, लखीमपुर खीरी, शाहजहांपुर, वाराणसी, गाजीपुर, इलाहाबाद, मिर्जापुर, कानपुर, जौनपुर, गोरखपुर, प्रतापगढ़, सुलतानपुर, देवरिया, फतेहपुर, आजमगढ़ एंव उन्नाव आदि जिलों में अति प्राचीनकालीन जातियाँ जैसे दलेरा, कंजड, नट, महारे, चमार एवं पासी आदि जातियाँ निवास करती थीं। इसके उद्धरण और संदर्भ अनेक पुस्तकों जैसे ‘गजेटियर आफ दि प्राविंस आफ अवध‘ वाल्यूम II-H to N तक, वर्ष 1877, ‘इम्पीरियल गजेटियर आफ इण्डिया-1908‘, ‘जिला गजेटियर खीरी-1979‘, ‘उन्नाव डिस्ट्रिक गजेटियर‘, ‘यू.पी. डिस्ट्रिक गजेटियर वाल्यूम XXXVII लखनऊ द्वारा श्री बी. सी. शर्मा-1959‘, विलियम क्रूक की पुस्तक ‘ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स आफ दि नार्थ वेस्टर्न इण्डिया‘, उत्तर प्रदेश गजेटियर, रायबरेली, डिस्ट्रिक गजेटियर रामपुर-1974 आदि पुस्तकों में स्पष्टया वर्णित है।

जिला गजेटियर रामपुर 1974 के पृष्ठ 3 पर अंकित है कि, ‘इस क्षेत्र में अहर, अहीर, बरमार, बेरिया, भुइंहार, चौहान (राजपूतों के इतर अर्थात् जो राजपूत न हो)‘, दलेरा, खौजर, नट और पासी आदिम जातियों के वंशजों के रुप में हैं, जो आदिम काल से यहाँ रहे और जिन्होंने जंगल साफ करके, कुछ अंश छोड़कर शेष विशाल भू-भाग को मानव के निवास योग्य बनाया।‘

पासियों के अति प्राचीन जाति एवं भारतवर्ष के मूल निवासी होने के सम्बन्ध में सबसे सुन्दर उदाहरण ‘गजेटियर आफ दि प्राविन्स आफ अवध‘ वाल्यूम II-H to M 1977 पृष्ठ 204 पर मिलता है, जिसमें कहा गया है कि- आदिम जातियों में पासी, अहीर और चमारों की संख्या लिहाज से हजार वर्षों में गुणात्मक वृद्धि हुई। क्षत्रिय तथा अन्य आर्य जातियों ने जनपद के भीतर हाल की अवधि में अपनी संख्या में धीरे-धीरे विस्तार किया क्योंकि भोजन एवं जलवायु उनके उपयुक्त ठीक नहीं थी।

उक्त उदाहरणों के प्रस्तुत करने का तात्पर्य मात्र यह है कि पासी भारतवर्ष के अति प्राचीन मूल निवासी हैं। वे भारतवर्ष में कहीं बाहर से नहीं आये हैं बल्कि उनकी उत्पत्ति ही यहीं हुई है।

शूरवीर पासी राजाओं का यर्थाथ

प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान श्री आर. बी. रसल ने 1916 में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘दि ट्राइब्स एण्ड कास्टस आफ दि सेन्ट्रल प्राविजेन्स आफ इण्डिया‘ में लिखा है कि ‘पासी एक द्रविड जनजाति है, जिन्होंने अवध के एक विस्तृत भू-भाग पर राज्य किया। कालान्तर में राजपूतों ने उनके गणराज्य को ध्वस्त कर दिया और उन पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।‘ विद्वान रसल ने पासियों को एक बहादुर कौम माना है। विद्वान रसल के द्वारा पासियों के विषय में लिखी गयी इन बातों की पुष्टि अंग्रेज लेखक विलियम क्रूक की पुस्तक ‘ट्राइब्स एवं कास्टस आफ दि नार्थ वेस्टर्न प्राविन्सेस एण्ड अवध‘ से भी होती है। विद्वान विलियम क्रूक ने पासियों की बहादुरी, उनकी सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक स्थिति के विषय में लिखा है कि ‘सम्पूर्ण अवध में परम्परागत रुप से वे देश के सामन्त या महाराजा थे। उनके राजाओं ने जिला खीरी, हरदोई तथा उन्नाव जिलों में राज्य किया। रामकोट, जहां बांगरमऊ कस्बा है, इनका मुख्य गढ़ रहा है। रामकोट के अंतिम पासी महाराजा, राजा सन्थर (महाराजा सातन कोट) ने कन्नौज के राजा जयचन्द को भेंट या नजराना देने से इन्कार करते हुए उनके प्रति अपनी निष्ठा समाप्त कर दी थी।‘ कालान्तर में महाराजा सातन पासी जयचन्द एवं आल्हा-ऊदल की संयुक्त सेनाओं से पराजित हुए। सातन कोट का राज्य नष्ट हो गया। आज भी सातन कोट में किले के अवशेष विद्यमान हैं, जहां अप्रैल में प्रतिवर्ष एक विशाल मेले का आयोजन होता है। उ.प्र. सरकार ने सातन कोट के किले पर दो कमरे का एक विश्राम गृह बनवा दिया है। उ.प्र. सरकार एवं भारत सरकार ने सातन कोट के किले पर लगभग तीन एकड़ भूमि भी महाराजा सातन पासी के स्मारक के लिए प्रदान कर दिया है।

सातन कोट के निकट ही हरदोई जनपद की सन्डीला तहसील है। सन्डीला की स्थापना पासी राजा सलीहा ने की थी। सलीहा पासी के दूसरे भाई मलीहा पासी ने लखनऊ जनपद की तहसील मलीहाबाद की स्थापना की। यह क्षेत्र आज सम्पूर्ण भारतवर्ष में अपने दशहरी आमों के लिए प्रसिद्ध है।

सन्डीला का गणराज्य 14वीं शताब्दी तक सई नदी और गोमती नदी के तटों तक दोआब क्षेत्र में फैला हुआ था। 14वीं शताब्दी के अन्त में दिल्ली के बादशाह सुल्तान नसीरुद्दीन शाह के सेनापति सैयद मखदूम अलाऊद्दीन ने सन्डीला राज्य पर हमला कर दिया। इस युद्ध में राजा सलीहा की हार हुई। इस पराजय के पश्चात् सन्डीला और निकटवर्ती पासी गणराज्यों से पासी राजाओं का अन्त हो गया। पासी गणराज्यों की समाप्ति के फलस्वरुप पासी समाज की राजनैतिक स्थिति बद से बदतर होती गयी। इसके साथ ही पासी जाति के लोग, जो ज्यादातर सेनाओं में योद्धा थे, से उनका कार्य भी छिनता चला गया। कालान्तर में पासी जाति के लोग किसी निश्चित व्यवसाय के न होने के कारण आर्थिक स्थिति से बहुत कमजोर हो गये। फलस्वरूप वे निर्धनता और गरीबी रेखा पर आ पहुंचे।

लखनऊ जो आज उत्तर प्रदेश की राजधानी है, वह कभी राजा बिजली पासी की राजधानी थी। महाराजा बिजली पासी का अवध प्रान्त के एक बड़े भू-भाग पर अपना विशाल साम्राज्य था। प्रसिद्ध अंग्रेजी विद्वान विलियम क्रूक ने लिखा है कि महान राजा राम, जो सूर्यवंशी राजपूत थे, के शासन की समाप्ति के बाद का भारतीय इतिहास बहुत दिनों तक अंधकारमय रहा। आगे जब से इतिहास की जानकारी हुई तो हम पाते हैं कि अयोध्या का विशाल राज्य तीन भागों में बंट गया था। अयोध्या के पूर्व के भू-भाग पर चेरों का कब्जा था। अयोध्या के मध्य भू-भाग पर भर राजाओं का शासन था और अयोध्या के पश्चिमी भू-भाग, जिसमें जनपद बाराबंकी, फैजाबाद, उन्नाव, सीतापुर, लखीमपुर खीरी, हरदोई, लखनऊ, रायबरेली एवं बहराइच आदि जनपद के परिक्षेत्र सम्मिलित थे, पर पासी राजाओं का आधिपत्य था। विलियम क्रूक की उक्त व्याख्या से स्पष्ट है कि महाराजा बिजली पासी का राज्य लखनऊ और आस-पास के क्षेत्रों में फैला हुआ था। महाराजा बिजली पासी के बारह किलों का विवरण आज भी सरकारी अभिलेखों में मिलता है। ये किले हैं - लखनऊ शहर स्थित महाराजा बिजली पासी किला, बिजनौरगढ़ का किला, नटवाडीह किला, माती किला, परवा पश्चिम किला, कल्ली पश्चिम किला, पुराना किला, औरावां किला, दादूपुर किला, भटगांव किला, ऐन किला एवं पिपरसंड किला।

इसी प्रसंग में श्री वी. सी. शर्मा द्वारा मुद्रित यू.पी. जिला गजेटियर 1959 पृष्ठ 28 का उद्धहरण प्रासंगिक है। श्री शर्मा ने लिखा है कि -

पासी एवं भर राज्य के विस्तार का साक्ष्य प्राचीन टीलों से एकत्र किया जा सकता है क्योंकि लोकमत में उन्हें भर टीला कहा जाता है। ये अमेठी, गोसाईंगंज, महोना एवं मोहनलालगंज तक फैले हैं। नगराम के राजा, बिजनौर के पासी, जिसके आधिपत्य के चलते परगना में पन्द्रह किले थे, काकोरगढ़ के भरपासी राजकुमार, मलिहाबाद के पासी, रामपुर कठवार के कुर्मी सरदार और महोना के मौर्य की कहानियां हाल की हैं।

श्री बी. सी. शर्मा ने इसी गजेटियर में यह भी लिखा है कि जनपद मे भर पासियों का विशाल राज्य था। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि जनपद बहराइच के पासी राजा सुहेलदेव ने काबुल के बादशाह के पुत्र सैयद सालार मसूद गाजी को लड़ाई के मैदान में मार गिराया था। सबसे आश्चर्य तो यह है कि मारे गये हमलावर गाजी मियां के मजार पर आज भी मेला लगता है और भारतीय राजा सुहेलदेव पासी, जिन्होंने हमलावर को परास्त किया था, का आज नामलेवा भी कोई नहीं है। सरकार को कम से कम बहादुर भारतीय राजाओं की यादगार में स्मारक तो बनाना ही चाहिए और उनके इतिहास को मूर्तरूप देना चाहिए।

जनपद बहराइच से लगा जनपद है, लखीमपुर खीरी। खीरी के बहुत बड़े भू-भाग पर पासियों का राज्य रहा है। उ.प्र. गजेटियर, खीरी के पृष्ठ 258 पर अंकित है

धौरहरा की उत्पत्ति ही देवरहा से है, जहाँ पर माता स्थान का ध्वंस मंदिर है। ऐसी परम्परा विख्यात है कि यहाँ पासी राज्य की राजधानी थी। जिला गजेटियर खीरी 1979 के पृष्ठ 20 पर स्पष्ट लिखा है कि-

इस कार्यकाल (9वीं सदी) की शिनाख्त करना गैरवाजिब न होगा कि इसी समय पासी एवं अन्य आदिम जातियों ने देश के भू-भाग को अपने आधीन कर रखा था। हालांकि अब पासियों के शासन काल का कोई चिन्ह शेष नहीं है क्योंकि वह राजपूत और मुस्लिम आक्रमणकारियों के वंशजों के लम्बे अन्तराल तक काबिज रहने के कारण गायब हो गये।

अनुसंधान की कमी के कारण खीरी के तत्कालीन पासी राजाओं का विस्तृत विवरण प्रस्तुत करने में कठिनाई है।

जनपद बहराइच और लखीमपुर से लगा हुआ जिला है, जनपद सीतापुर। सीतापुर जनपद के खैराबाद परगने को बसाने वाले राजा खैरा पासी ही थे। गजेटियर प्राविन्स आफ अवध, वाल्यूम II वर्ष 1877 के पृष्ठ 123 पर लिखा है कि-

ऐसा कहा जाता है कि खैरा पासी ने 11वीं सदी में इस नगर की आधार शिला रखी। खैरा पासी के पूर्व यह स्थान मसिचैत (मसिचित्र) के नाम से जाना जाता था। यह स्थान महान विक्रमादित्य के शासन काल में एक तीर्थस्थल था।

पासी राजाओं, उनके द्वारा निर्मित किलों, उनके सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक एवं धार्मिक स्थिति की जानकारी के लिए आज तक कोई ठोस प्रयास नहीं हुए हैं। इस कारण पासी राज्यों का इतिहास बिखरा पड़ा है। यह कार्य पासी समाज के उत्थान में लगी ऐच्छिक संस्थाओं द्वारा किया जा सकता है। सरकार का भी यह दायित्व बनता है कि वह प्राचीन भारतीय पासी राजाओं के इतिहास पर शोध करवाये और जनता के समक्ष शूरवीर पासी राजाओं के शासन काल विषयक पुस्तकें प्रकाशित करवाये।

सीतापुर: पासी आधिपत्य का इतिहास

दलितों के प्राचीन इतिहास को लेखबद्ध करने का प्रयास अब तक न तो शासन स्तर पर हुआ है और न ही किसी इतिहासकार ही ने ही कोई गम्भीर प्रयास किया है। पासी जाति के इतिहास को उजागर कर उसे प्रकाशित कराने में भी यही दोमुंही नीति अपनायी गयी है। आजादी के बाद कुछ पढ़े-लिखे लोगों ने पासी जाति के गौरवशाली इतिहास को जन-सामान्य के सामने लाने का प्रयास किया गया है। लेकिन इस क्षेत्र में कठिन अनुसंधान, जांच-पड़ताल, टीलों, गढ़ियों के अध्ययन आदि की अब भी आवश्यकता बनी हुयी है।

सीतापुर जिले में पासियों के इतिहास को लेखबद्ध करने में विभिन्न गजेटियरों में पासी समाज के बारे में लिखे गये दस्तावेजों, हरदोई सेटिलमेन्ट रिपोर्ट, विभिन्न टीलों और गढ़ियों की संरचना, उनमें प्राप्त वस्तुओं के विश्लेषण परम्पराओं, पासी गायकों तथा कवियों की वाणी आदि में वर्णित पासी इतिहास, महत्वपूर्ण साक्ष्यों तथा तथ्यों को एक सूत्र में पिरोकर तथ्यात्मक स्थिति प्रस्तुत करने का प्रयास किया जा रहा है।

प्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान विलियम क्रूक्स ने अपनी पुस्तक ‘ट्राइब्स एण्ड कास्टस आफ दी नार्थ वेस्टर्न इण्डिया‘ वाल्यूम 2 में यह साफ लिख दिया है कि अयोध्या के पराक्रमी सूर्यवंशी राजा रामचन्द्र के शासनकाल के पश्चात् का इतिहास बहुत समय तक अन्धकारमय रहा। लेकिन जब इतिहास की जानकारी हुयी तब तक अयोध्या का विशाल राज्य तीन खण्डों में बंट गया था। अयोध्या के पूरब के क्षेत्र में चेरों का राज्य, अयोध्या के मध्य में भरों का राज्य और अयोध्या के पश्चिमी क्षेत्र जिसमें आज के बाराबंकी, लखीमपुर खीरी, बहराइच, बलरामपुर, गोण्डा, सीतापुर, हरदोई, उन्नाव, लखनऊ, रायबरेली एवं प्रतापगढ़ आदि जिले आते हैं। उन पर पासी राजाओं का राज्य स्थापित हो गया था। इस बात का सर्मथन अंग्रेज विद्वान रसेल एवं सर एच.एम.इलियट आदि सभी करते हैं। मुस्लिम लेखक हलीम शरर भी इसकी पुष्टि करते हैं।

स्पष्ट है कि राजा रामचन्द्र के शासनकाल के बाद सीतापुर जनपद में भी पासी राजाओं का राज्य स्थापित हो चुका था। चूंकि प्राचीन काल में इतिहास लिखने की परम्परा नहीं थी। इस कारण सीतापुर जनपद के सभी राजाओं का वर्णन देना संभव नहीं हो पा रहा है। हाँ इस बात का स्पष्ट प्रमाण है कि सीतापुर का प्राचीन नाम छितियापुर था। चूंकि छितियापुर को महाराजा छीता पासी ने बसाया था इस कारण उनके नाम पर छितियापुर नामकरण हुआ। यह नाम मुगलों के शासन काल तक यथावत रहा। कालान्तर में छितियापुर अपभ्रंश होते-होते सीतापुर हो गया। यह भी सत्य है कि सीतापुर जिले के खैराबाद परगने को राजा खैरा पासी ने 11वीं शताब्दी में बसाया था। उन्हीं के नाम पर परगने का नाम खैराबाद पड़ा। लहरपुर को भी लहरी पासी ने 14वीं शताब्दी में बसाया था। इस कारण लहरपुर का नामकरण भी उन्हीं के नाम पर हुआ। इसी तरह राजा रतन दत्त का राज्य महोली के विस्तृत क्षेत्र पर था। उनके पुत्र राजा हंसा पासी आज के विधानसभा क्षेत्र हरगांव के बहुत बड़े भू-भाग के राजा थे। मै जी. डब्लू. गेयर के इस मत से सहमत हूँ कि एक समय में पासियों का इस पूरे क्षेत्र पर प्रभुत्व था।

"They are said to be non-Aryans and at one time were undoubtedly people of position."

लेखक गेयर ने स्पष्ट कर दिया है कि इसमें शंका की कोई गुंजाइश ही नहीं है।

जिला गजेटियर खीरी 1979 के पृष्ठ 22 पर लिखा है कि भारतवर्ष में प्रथम मुसलमान आक्रमण के समय आये बाहरी लोगों ने भूड़, कुकड़ा, मैलानी, हैदरबल, पलिया और कस्ता के पासी राजाओं के विस्तृत क्षेत्र, जो सई और कैंथा नदी के विशाल क्षेत्र में फैले हुये थे, पर कब्जा कर लिया।

"This subdued the Pasis whose dominion, included Bhur, Kukra, Mailani, Haiderbal, Palia and Kasta between the Sai and Kantha rivers."

आज जनपदों की जो भौगोलिक सीमा है वह पहले नहीं थी। तत्समय जनपदों के नाम भी आज के नाम नहीं थे। अलग-अलग राजाओं की करेन्सी अर्थात मुद्रा (सिक्के) भी अलग थे। सोने के सिक्के, चांदी के सिक्के और तांबे के सिक्कों का प्रचलन था। बांट-माप भी अलग थे। सिक्कों की उपलब्धता हमें बताती है कि किस समय किसका राज्य था। कन्नौज के राजा भोज द्धितीय के 9वीं शताब्दी के सिक्कों का प्रचलन सीतापुर और लखीमपुर खीरी के क्षेत्रों में भी था। इन सिक्कों के प्रचलन से यह ज्ञात होता है कि इस क्षेत्र में किन-किन राजाओं की क्या स्थिति थी। इतिहासकार सिक्कों के अध्ययन के आधार पर इस बात से सहमत हैं कि 9वीं शताब्दी में हरदोई, उन्नाव, सीतापुर और लखीमपुर जिलों में तत्समय भारत के मूल निवासी पासियों का राज्य था। इस बात की पुष्टि जिला गजेटियर खीरी 1979 के पृष्ठ 20 पर लिखित इस अभिलेख से होती है

"The history of subsequent period is completely blank, expect that Adivaraha coins of 9th century A.D. belonging to Bhoj Deva-II to which Kanauj are commonly found in most of the provinces. It may not be a far fetched theory to identify that period with the times in which Pasis and other aboriginal tribes said to have held these parts of the country."

अब तक जो तथ्य सामने आये हैं उससे ज्ञात होता है कि 9वीं, दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी तक इस पूरे क्षेत्र पर पासियों का आधिपत्य था। यह वह समय था जब हरदोई, उन्नाव, लखनऊ, बाराबंकी और लखीमपुर खीरी आदि जनपदों में भी पासियों का राज्य था किन्तु भारतवर्ष में विदेशी मुस्लिम आक्रमणकारियों के हमलों के साथ ही साथ राजपूतों के आक्रमण ने पासियों के राज्यों को नष्ट कर उन पर अपना कब्जा कर लिया। चूंकि पासी राजा अलग-अलग लड़े, मिल-जुल कर एकजुट होकर आक्रमणकारियों का मुकाबला नहीं कर सके। इस कारण उनके हाथ से राज-पाट जाता रहा। यही बात जिला गजेटियर खीरी में भी कही गयी है

"No signs of Pasi dominion have however survived which need not surprise us as their possession have long period been held by the descendants of Rajputs and Muslim invaders."

लखीमपुर खीरी: पासी राजाओं के गौरवशाली इतिहास से सरोबर जनपद

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से उत्तर पश्चिम की ओर लगभग 135 कि.मी. की दूरी पर स्थित है, जनपद लखीमपुर खीरी। लखीमपुर खीरी के दक्षिण में जनपद सीतापुर, उत्तर की ओर नेपाल, पूरब की ओर जनपद बहराइच और पश्चिम की ओर शाहजहांपुर जिले स्थित हैं। जनपद के आस-पास के अधिकांश क्षेत्रों का उल्लेख इसलिए आवश्यक है क्योंकि 9वीं, दसवीं, 11वीं और 12वीं शताब्दी में इन समस्त क्षेत्रों में पासियों का राज्य था। जिला गजेटियर, खीरी (1979) के पृष्ठ संख्या 20 पर इस बात की पुष्टि की गयी है जो निम्नवत है

"The history of the subsquent period is completely blank, except that Adivaraha coins of the 9th century A.D. belonging to Bhoj Dev II of Kanauj are commonly found in most parts of the province. It may not be a far fetched theory to identify this period with the times in which Pasis and other aboriginal tribes are said to have held this part of the country."

नवीं शताब्दी एवं उसके बाद के इतिहास के कुछ साक्ष्य मिलते भी है। लेकिन उसके पूर्व के इतिहास की खोज अभी की जानी बाकी है। लेकिन इतना तो तय है कि इसके पूर्व भी इस क्षेत्र पर पासियों का राज्य था। अंग्रेज विद्वान विलियम क्रूक ने अपनी पुस्तक "Tribes and Casts of the North Western India" वाल्यूम II के पृष्ठ 1 पर लिखा है कि,

"The scene before us in Oudh at the fall of historic curtain is the inhabited forest country and a large colony of Suryavanshis occupying Ayodhya as their capital. When the curtain rises again we find Ayodhya destroyed, the Suryavanshis uttenly banished and a large extent of the country ruled over by Aboriginals called Cheros in the far East, Bhars in the centre and Pasis in the West. This great revolution seems to be satisfactorily extended by the conjucture that the Bhars, Cheros etc were the aborigines whom the Aryans have driven through hills, and who swarming down from thence not long after the begining of our era overwhelmed the Aryan civilization even in Ayodhya itself, drove the Suryavanshi under Kanak Sen to emigrate into the distant Gujrat and spread over to the plain between the Himalayas and that spure of the Vindhya range which passes through the South of Mirzapur."

उक्त तथ्य इस बात के प्रमाण हैं कि अयोध्या के सूर्यवंशी राजा रामचन्द्र के शासन काल के बाद इतिहास बहुत समय तक अन्धकारमय रहा। जब से इतिहास की जानकारी हुयी तब यह परिदृश्य सामने आया कि अयोध्या का विशाल साम्राज्य नष्ट हो चुका था। सूर्यवंशी राजा बिखर गये थे। अयोध्या का विशाल राज्य तीन खंड़ों में विभक्त हो गया था। अयोध्या के पूर्वी भाग पर चेर जाति के लोगों का राज्य हो गया था। अयोध्या के मध्य भाग पर भरों का और अयोध्या के पश्चिमी भाग (जिसमें आज के जनपद बाराबंकी, श्रावस्ती, बलरामपुर, लखीमपुर खीरी, सीतापुर, लखनऊ, हरदोई, उन्नाव एवं रायबरेली आदि जिले आते हैं) पर पासियों का आधिपत्य हो गया था। चेर, भर और पासी सभी भारतवर्ष के मूल निवासी थे। इनको आर्यों ने जंगलों एवं पहाड़ों में खदेड़ दिया था। लेकिन अवसर मिलते ही ये जातियां पहाड़ों एवं जंगलों से आकर अयोध्या के विभिन्न क्षेत्रों पर काबिज हो गयीं।

इतिहासकार मोहम्मद अब्दुल हलीम शरर ने अपनी पुस्तक “गुजश्तः लखनऊ” में भी इस बात की पुष्टि की है कि “महाराजा युधिष्ठिर के पोते राजा जन्मेय ने यह इलाका (अर्थात संपूर्ण अवध प्रान्त का क्षेत्र) लखनऊ के मरताज़ बुजुर्गों, ऋषियों और मुनियों को जागीर में दे दिया था, जिन्होंने यहाँ चप्पे-चप्पे पर अपने आश्रम बनाये और हरि के ध्यान में मग्न हो गये। एक मुद्दत के बाद इनको कमजोर देख कर दो नई कौमें हिमालय की तराई से आकर इस मुल्क में काबिज हो गयी। जो बाहम मिलती-जुलती और एक ही नस्ल की दो शाखाऐं मालूम होती हैं एक भर और दूसरी पासी।

प्रसिद्ध विद्वान सर सी. इलियट ने भी उक्त बातों का समर्थन किया है। अंग्रेज विद्वान श्री आर. वी. रसेल ने भी इन्हीं बातों की पुष्टि की है। अनेकानेक विद्वानों, प्राचीन खण्डहरों, किलों के भग्नावशेषों, टीलों, प्राचीन सिक्कों तथा प्राचीन अवशेषों से ¬प्राप्त बर्तनों एवं अन्य वस्तुओं के अध्ययन से यह स्पष्ट हो गया है कि लखीमपुर खीरी एवं उसके आस-पास के समस्त क्षेत्रफल पर 9वीं, 10वीं, 11वीं, 12वीं और 13वीं शताब्दी में पासियों के अनेकों गणराज्य थे। 12हवीं और 13हवीं शताब्दी में वाहय आक्रमणकारियों और राजपूतों के हमलों से पासी राज्यों का बहुत नुकसान हुआ। उन लोगों ने न सिर्फ राज्यों पर कब्जा कर लिया बल्कि पासियो के ऐतिहासिक धरोहरों एवं उनकी संस्कृति को भी नष्ट कर दिया। जिला गजेटियर खीरी, प्रकाशनवर्ष 1979 के पृष्ठ 20 पर भी इसी बात की पुष्टि की गयी है

"It may not be a fo farfetched theory to identify this period with the times in which Pasis and other aboriginal tribes are said to have held this part of the country. No signs of Pasi dominion have however survived which need not surprise us as their possession have long period been held by the descendents of Rajputs and Muslim invaders."

आज भी अनेकों स्थानों पर पासी राजाओं के बनवाये हुए डीह, टीलों एवं किलों के भग्नावशेष बिखरे पड़े हैं। कई स्थानों पर तो लोगों ने इन पर कब्जा कर अपना स्वामित्व स्थापित कर लिया है।

धौरहरा, जनपद-लखीमपुर खीरी, में पासी आधिपत्य का इतिहास

धौरहरा लखीमपुर खीरी मुख्यालय से उत्तर-पूरब की ओर कि.मी. पर स्थित है। धौरहरा एक कस्बा है। इस क्षेत्र में पासी समाज की बाहुल्यता है। प्राचीन काल में यह स्थान पासी राजाओं का गढ़ था। यहाँ आज भी अनेकों टीलों और मिट्टी के किलों के भग्नावशेष देखने को मिलते हैं। जिला गजेटियर खीरी (प्रकाशनवर्ष-1979) के पृष्ठ 258 पर इस तथ्य की पुष्टि की गयी है कि धौरहरा प्राचीन काल में पासियों की राजधानी रही है।

"Dhaurahara (District Lakhimpur Khiri) is said to have derived its name from Deoraha, a small ruined temple or Mata Sthan. Tradition has it that in ancient days the place was the capital of a Pasi principality, which was overthrown by the Bisens."

अंग्रेज विद्वान विलियम क्रूक ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक “दि कास्टस एण्ड ट्राइब्स आफ नार्थ वेस्ट प्राविन्सेस एण्ड अवध” जो वर्ष 1896 में प्रकाशित हुयी थी में भी इस बात की पुष्टि की है कि धौरहरा जनपद लखीमपुर खीरी और हरदोई तथा सीतापुर के क्षेत्रों में पासियों के राज्य थे।

"All Throughout Oudh the Pasis have traditions that they were lords of the country and their king reigned at Sandila, Dhaurahara, Mitauli and Ramkot in the districts of Khiri, Hardoi and Unnao."

धौरहरा के पासी राजाओ की संरचना उनकी प्रशासनिक, राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक विरासत आदि पर शोध किया जा रहा है। यथाशीघ्र इनका विवरण प्रस्तुत किया जायेगा।

पलिया, मैलानी और मितौली आदि क्षेत्रों पर पासी राजाओं के इतिहास का संक्षिप्त विवरण

जनपद लखीमपुर खीरी और आस-पास के क्षेत्रों के प्राचीन इतिहास के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि पलिया, मैलानी और मितौली आदि क्षेत्रों पर पासी राजाओं का कई सदियों तक राज्य था। दसवी शताब्दी में सीतापुर से लेकर गोरखपुर जिले तक का विशाल क्षेत्र बहराइच, श्रावस्ती के महापराक्रमी राजा सुहेलदेव पासी के आधिपत्य में था। जनपद खीरी के पलिया, मैलानी, मितौली और धौरहरा आदि क्षेत्रों के राजा महाराजा सुहेलदेव पासी के नेतृत्व में कार्य करते थे। विदेशी आक्रमणकारी सैयर सालार मसूद गाजी के विरूद्ध लड़ाई में इन क्षेत्रों के राजाओं ने महाराजा सुहेलदेव पासी के साथ कन्धे से कन्धा मिला कर युद्ध किया था। जिसमें सैयद सालार मसूद गाजी मारे गये थे। उनके साथ ही उनकी लाखों की सेना भी मारी गयी थी।

पैला, मैलानी, पलिया एवं मितौली आदि क्षेत्रों के राजाओं के कार्यकाल एवं उनके शासन व्यवस्था के बारे में सघन अनुसंधान किया जा रहा है। जिसमें समय लगेगा।

इस क्षेत्र के पासी राज्यों के अन्त के बारे में यह साक्ष्य मिलता है कि मुसलमान आक्रमणकारी गुजरात से इन क्षेत्रों में आये और उन्होंने सीतापुर और लखीमपुर खीरी जिले के पासी राजाओं जिनके राज्य भूड़, कुकरा, मैलानी, हैदरबल, पलिया और काथा आदि में थे, पर कब्जा कर लिया। जिला गजेटियर खीरी के पृष्ठ 20 पर यह कहा गया है कि,

"The clan of Akbar's came early at the time of first Muslim invasion from Gujrat and settled in the district of Hardoi, Khiri, Mailani, Haiderbal, Palia and Kasta between the Sai and Kathna rivers."

आज के लखीमपुर खीरी का नामकरण 16वीं शताब्दी में हुआ था। खीरी की आज की मुहम्मदी (तहसील) का नाम भी 17वीं शताब्दी में पड़ा था। इस क्षेत्र में पासियों की बाहुल्यता है। इसके पूर्व यह क्षेत्र बहुत विस्तृत था। प्राचीन काल में इस क्षेत्र में कभी कन्नौज के पराक्रमी राजा भोज, कभी अहवन्स राजाओं का तो कभी पांचालों का प्रभुत्व था। आर्यों के हमलों से इस क्षेत्र के मूल निवासियों की शासन व्यवस्था बहुत प्रभावित हुयी थी। इन तमाम बिन्दुओं पर बहुत खोज और शोध की आवश्यकता है।

रायबरेली के वीरपासी सपूतों का संक्षिप्त इतिहास

अंग्रेज विद्वान विलियम क्रूक, श्री रसेल, सर इलियट तथा प्रसिद्ध मुस्लिम साहित्यकार श्री शरर सभी एक मत से इस बात की पुष्टि कर चुके हैं कि अयोध्या के महापराक्रमी राजा रामचन्द्र के शासन काल के बाद का इतिहास बहुत दिनों तक अंधकारमय रहा। लेकिन जब पर्दा उठा तो अयोध्या का राज्य तीन खंड़ों में विभक्त हो गया था। पश्चिम के अयोध्या के बहुत बड़े भू-भाग, जिसमें जनपद रायबरेली और प्रतापगढ़ के क्षेत्र भी आते हैं, पर पासियों का राज्य हो गया था। अवध गजेटियर में भी इसकी पुष्टि करते हुए कहा गया है कि

"The Pasis were once dominant community in U.P. especially in Oudh region where they are reported to have had political domain once and held small kingdoms of their own and had to fight to defend their kingdom."

रायबरेली जनपद का पश्चिमी क्षेत्र लखनऊ जनपद के मोहनलालगंज तहसील से मिला हुआ है। मोहनलालगंज का यह इलाका कभी महाराजा बिजली पासी के राज्य का भाग था। ऐसा प्रतीत होता है कि तत्समय रायबरेली जनपद के पश्चिमी इलाके पर भी महाराजा बिजली पासी का राज्य था। रायबरेली का यह क्षेत्र बछरांवा तहसील के अन्तर्गत आता है। एक समय में बछरांवा तहसील के एक भू-भाग पर राजा हरदेव पासी का राज्य था। उनके किलों के भग्नावशेष टीले के रुप में आज भी विद्यमान हैं। इसी तरह रायबरेली से 29 कि.मी. महाराजगंज मार्ग पर पासी राजा थुलेन्डी का राज था। उनके किले के अवशेष टीलों के रुप में आज भी विद्यमान है। इतिहासकार यह भी मानते हैं कि 10 से लेकर 14वीं शताब्दी तक पासियों का राज्य रायबरेली के जायस, इन्हौना, सलवन एवं खीरी आदि क्षेत्रों पर भी था।

रायबरेली जनपद के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्रों में पचास हजार से अधिक पासी मतदाता हैं। बिना पासियों के वोट को प्राप्त किये कोई भी प्रत्याशी न तो विधानसभा और न ही संसद में ही पहुंच सकता है। दुःख की बात है कि विगत पचास से अधिक वर्षों से विभिन्न पार्टियां पासियों के वोट तो, ऐन-केन प्रकरेण ले रही हैं लेकिन किसी ने भी पासियों के विकास की ओर वांछित ध्यान नहीं दिया है। यहां के पासी बड़े वीर एवं बहादुर रहे हैं। आजादी की लड़ाई में रायबरेली के पासियों ने अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया था। जिससे खफा होकर अंग्रेजों ने 1914 ई. में पासियों के ऊपर जरायम पेशा ऐक्ट लगा दिया था। इस काले कानून के कारण पासियों की सम्पत्तियां जब्त कर ली गयी, उनको सरकारी नौकरियों से वंचित कर दिया गया, बच्चा होते ही थाने में उसके जन्म की सूचना अंकित कराना अनिवार्य कर दिया गया। जब भी कही कोई वारदात करता तो पुलिस के लोग पासियों को पकड़ कर जेल में डाल देते थे। पचासों साल तक पासियों को ‘क्रिमिनल ट्राइब्स ऐक्ट‘ का कहर झेलना पड़ा। लेकिन किसी विकास पैकेज के अभाव में पासियों की स्थित रायबरेली में आज बहुत ही असंतोषजनक हैं।

अधिकांशतः पासी या तो कृषक मजदूर है अथवा उनके पास छोटी-मोटी खेती है जिसके सहारे वे अपना जीवन-यापन करते हैं। एक इतिहासकार ने लिखा है कि पासियों के राज-पाट पर जब मुसलमानों और राजपूतों ने कब्जा कर लिया तब किसी एकजुटता अथवा ट्रेड यूनियन के अभाव के कारण वे बिखर गये। इस बिखराव का दुष्परिणाम यह हुआ कि वे पुनः अपना राज-पाट वापस नहीं पा सके।

बाराबंकी जनपद में पासी राज्यों की संरचना पर दो शब्द

बाराबंकी परिक्षेत्र अवध प्रान्त का एक भू-भाग रहा है। प्राचीन काल में बाराबंकी का नाम कभी जसन्नौल था। प्राचीन इतिहास के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि नौवीं शताब्दी से लेकर 13हवीं शताब्दी तक इस क्षेत्र पर पासियों का राज्य रहा है। अवध गजेटियर में इसकी पुष्टि करते हुए कहा गया है कि,

"The Pasis were once dominant community in U.P. especially in Oudh region where they are reported to have had political dominance and held small kingdoms of their own and had to fight to defend their kingdoms.

दसवीं शताब्दी में बाराबंकी का यह पूरा क्षेत्र श्रावस्ती व बहराइच के महापराक्रमी राजा सुहेलदेव पासी के आधिपत्य में था। इसके पूर्व भी इस क्षेत्र पर कई दशकों तक पासियों का राज्य था। इस तथ्य की पुष्टि विद्वान विलियम क्रूक्स, प्रसिद्ध लेखक आर. वी. रसेल एवं एच. एम. इलियट आदि विद्वान भी करते हैं। भारत सरकार द्वारा पासियों पर प्रकाशित पुस्तक में भी इस बात को स्वीकार किया गया है कि इस पूरे क्षेत्र में प्राचीन काल में बहुत लम्बे अरसे तक पासियों का राज्य था।

लखनऊ के महान शासक महाराजा बिजली पासी के समय में भी बाराबंकी में पासियों का राज्य था। सन् 1150 से सन् 1192 ई. तक बाराबंकी के देवगढ़ में राजा देवमाती पासी का राज्य था। उनकी लड़ाई महोबा के शासक आल्हा-ऊदल से हुई थी।

बाराबंकी के अनेकों क्षेत्रों में पासी राजाओं के डीह, किले और टीलों के भग्नावशेष आज भी मिलते है। इतिहासकार इस बात को मानते हैं कि 18वीं शताब्दी में भी बाराबंकी के क्षेत्र रूदौली, देवा, कासिमगंज, हैदरगढ़, रामनगर धीमरा आदि स्थानों पर पासियों के स्वतंत्र राज्य थे।

बाराबंकी के 18वीं शताब्दी के इतिहास में कासिमगंज के राजा श्री गंगाबक्श रावत का वृतांत स्वर्णिम अक्षरों में लिखने योग्य है।

राजा गंगा बक्श रावत दो सौ से अधिक गांवों के स्वतंत्र राजा थे। अपने कुशल प्रशासनिक व्यवस्था के कारण वे अपने पूरे राज्य में अत्यन्त लोकप्रिय थे। अपनी राज्य की रक्षा के लिए उन्होंने एक मजबूत सेना खड़ी की थी। उनके अदम्य साहस और वीरता से आस-पास के राजा राजा उनसे भय खाते थे।

भारतवर्ष में अंग्रेजों ने अपने पांव जमाने के पश्चात् स्वतंत्र राज्यों को अपने अधीन करने के लिए कुत्सित प्रयास शुरू किये। लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह पर अंग्रेजों ने दबाव डाला कि राजा गंगा बक्श रावत का राज्य अवध प्रान्त में सम्मिलित कर लिया जाये। नवाब वाजिद अली शाह ने तद्नुसार राजा गंगा बक्श रावत को संदेश भेजा। जिसे राजा गंगा बक्श ने ठुकरा दिया। इस बात पर अंग्रेज शासक व नवाब दोनों ही उनसे खफा हो गये। उनकी सेनाओं ने कासिमगंज पर 29 मार्च 1850 में हमला कर दिया। राजा गंगा बक्श रावत की सेनाओं ने उनका जम कर मुकाबला किया। इस लड़ाई में कैप्टन एल्डरटोन मारा गया। स्थिति की गम्भीरता को देख कर राजा गंगा बक्श रावत अपने दूसरे किले भटिया पर चले गये। अपनी करारी हार को अंग्रेज भुला नहीं सके। उन्होंने ऐेन-केन-प्रकरणेन राजा गंगा बक्श रावत को खत्म करने की ठानी।

लखनऊ के रेजीडेन्ट कर्नल स्लीमैन ने नवाब वाजिद अली शाह को निर्देश दिया कि किसी भी तरह राजा गंगा बक्श रावत को जिन्दा या मुर्दा पकड़वाया जाये ताकि कैप्टन एल्डरटोन की मौत का बदला लिया जा सके। नवाब अंग्रेजों के पराधीन थे। उन्होंने रेजीडेन्ट स्लीमैन के निर्देशानुसार राजा गंगा बक्श को अपने दरबार में पेश होने का वारन्ट जारी किया, साथ ही उनके ऊपर एक भारी ईनाम भी घोषित कर दिया ताकि लालच में आकर लोग उनका भेद खोल दें।

फिर भी जब राजा गंगा बक्श रावत पकड़ से बाहर रहे। तब लखनऊ के रेजीडेन्ट ने नवाब वाजिद अली शाह की ओर से एक जाली पत्र उर्दू में बनवाकर राजा गंगा बक्श रावत को यह संदेश भिजवाया कि वे 18 सितंबर 1850 को नवाब वाजिद अली शाह के दरबार में हाजिर हों, नवाब उनसे सम्मानजनक समझौता करना चाहते हैं। पत्रवाहक ने राजा गंगा बक्श रावत को अपने विश्वास में ले लिया। यहीं वह धोखा खा गये। वे नवाब वाजिद अली शाह से मिलने के लिए निर्धारित तिथि पर अपने बेटे रंजीत सिंह रावत के साथ निकल पड़े। लखनऊ के मकबरे वाले पुल के पास उनको अंग्रेजी सेना द्वारा पकड़ लिया गया। रेजीडेन्ट स्लीमैन के आदेश पर अंग्रेजी सेना ने राजा गंगा बक्श रावत और उनके बेटे रंजीत सिंह रावत की हत्या कर उनके शव को नाले में फेक दिया। यह नाला आज सरकटा नाले के नाम से जाना जाता है।

मृत्यु से पूर्व राजा गंगा बक्श रावत ने रेजीडेन्ट स्लीमैन से कहा था कि उन्होंने जो भी लड़ाई लड़ी, वह मातृभूमि की रक्षा के लिए लड़ी। उन्होंने स्वयं हमला नहीं किया बल्कि आतातायियों का जमकर मुकाबला किया। उन्होंने कहा कि देश की रक्षा के लिए वे हजार बार मरने को तैयार हैं। वे एक स्वाभिमानी वीर योद्धा थे। उन्होंने अंग्रेजों के आगे झुकना अपना अपमान समझा। आखिर दम तक वह भारत माता की जयकार करते रहे। देश पर न्योछावर होने वाले ऐसे वीर योद्धा सदियों में विरले ही होते हैं।