Maharajas History

पासी राजाओं का गौरवशाली इतिहास

यह सार्वभौमिक तथ्य है कि प्राचीन काल में इतिहास लिखने की परम्परा दुर्लभ प्रायः सी थी। यही कारण है कि महाराजाओं का इतिहास लिखने के लिए उत्खनन से प्राप्त सामग्री, तत्समय और बाद के वर्षों के विभिन्न पुस्तकों और अभिलेखों जैसे जिला गजेटियर आदि में उपलब्ध सामग्री ही हमारा आधार है।

Maharaja Bijli Pasi

पासी शिरोमणि महाराजा बिजली पासी

जग प्रसिद्ध विद्वान सर एच.एम.इलियट द्वारा लिखित पुस्तक ‘हिस्ट्री आफ अवध‘ भाग 1 के पृष्ठ 33 से 53 के अध्ययन से ज्ञात होता है कि राजा बिजली पासी कन्नौज के राजा जयचन्द के समकालीन थे। इस तथ्य की पुष्टि लगभग सभी इतिहासकार करते हैं। कन्नौज के राजा जयचन्द का शासन काल सन् 1170-94 ई. तक था। इस प्रकार राजा बिजली पासी का शासन काल भी ग्यारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में था।

लखनऊ जिला मुख्यालय से आठ कि.मी. दक्षिण में स्थित बंगला बाजार को पार कर बिजनौर कस्बे की ओर जाने वाली सड़क के दाहिनी ओर एक विशाल किले के अवशेष मिट्टी और कहीं-कहीं लखौरी ईंटों के टीले के रूप में दिखाई देते हैं। यह ऐतिहासिक स्थान बारहवीं शताब्दी के पराक्रमी महाराजा बिजली पासी की कीर्ति का मूक साक्षी है। यह किला पूर्व से पश्चिम 210 मीटर और उत्तर से दक्षिण 280 मीटर परिसर में कुल 58800 वर्ग मीटर क्षेत्र में फैला हुआ है और अब एक संरक्षित क्षेत्र है।

उत्तर प्रदेश सरकार के पर्यटन विभाग के द्वारा प्रकाशित अभिलेखों के अनुसार," महाराजा बिजली पासी का राज्य 148 वर्ग मील लखनऊ और उसके आसपास के क्षेत्रों में फैला हुआ था। उक्त क्षेत्र के प्रशासन के लिए उन्होंने पहले अपनी मां के नाम विजनागढ़ का निर्माण कराया जो कालान्तर में बिजनौरगढ़ हो गया। उनकी मां का नाम विजना और पिता का नाम नटवा था। विजनौर से लगभग 3 कि.मी. उत्तर की ओर उन्होंने अपने पिता के सम्मान में नटवागढ़ का निर्माण कराया। पुनः राज्य के विस्तार के साथ उन्होंने उस किले से 3 कि.मी. और उत्तर की ओर उस विशाल किले का निर्माण कराया जिसे अब महाराजा बिजली पासी का किला कहा जाता है। महाराजा बिजली पासी के उपर्युक्त तीन किलों के अतिरिक्त नौ किले और थे जिनके नाम थे, माती किला, परवर पश्चिम किला, कल्ली पश्चिम किला, पुराना किला, भटगांव किला, औरांव किला, दादूपुर किला, ऐन किला और पिपरसण्ड किला। इनमें नटवा, माती, परवर पश्चिम तथा कल्ली पश्चिम किलों के अवशेष आज भी टीलों के रूप में मौजूद हैं। महाराजा बिजली पासी के द्वारा बनवाये गये इन 12 किलों के निर्माण से यह ज्ञात होता है कि राजा बिजली पासी स्थापत्य कला में कितने निपुण थे। इन बारह किलों की श्रृंखला का निर्माण कर उन्होंने एक ऐसे चक्रव्यूह की रचना की थी कि कोई भी दुश्मन उनकी सत्ता को नुकसान न पहुंचा सके। महाराजा बिजली पासी के किले का चित्र अंग्रेज कर्नल डी.एस.हाडसन नें 1857 ई. में अपने हाथ से किले के पास बैठकर बनाया था। इस किले की भव्यता देखते ही बनती थी।

11वीं-12वीं शताब्दी में सम्पूर्ण उत्तरी भारत में अराजकता छाई हुई थी। एक ओर देशी राजे एक दूसरे से युद्ध लड़ने में अपनी शक्ति का क्षय कर रहे थे, दूसरी ओर यहाँ की आपसी फूट का लाभ उठाते हुए विदेशियों के आक्रमण तेज हो गये थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि कन्नौज के राजा जयचन्द ने महाराजा बिजली पासी से कर देने के लिए कहा। राजा बिजली पासी ने किसी प्रकार का कोई कर देने से साफ इंकार कर दिया। इससे रूष्ट होकर जयचन्द ने अपनी सेना महाराजा बिजली पासी को हराने और अपनी शर्तें मनवाने के लिए भेजी। लेकिन पराक्रमी राजा बिजली पासी की सेनाओं ने राजा जयचन्द की सेनाओं को परास्त कर खदेड़ दिया। यह वही क्षत्रिय राजा थे जिन्होंने अपने मतलब के लिए विदेशी आक्रमणकारी मुहम्मद गोरी को भारतवर्ष में अपने दुश्मनों को पराजित करने के लिए आमंत्रित किया था। महाराजा बिजली पासी के हाथों पराजित होने के बाद राजा जयचन्द अत्यन्त कुपित हुआ और उसने ऐन-केन-प्रकरणेन राजा बिजली पासी को पराजित करने की चाल चली। उसने महोबा के सरदार आल्हा-ऊदल, जो बानापार हीरोजै के रूप में मशहूर लड़ाकू थे, से सम्पर्क किया और उनसे राजा बिजली पासी के हाथों अपनी पराजय का बदला लेने की संधि की। आल्हा-ऊदल ने अपने साले जोगा आदि को महाराजा बिजली पासी को हराने के लिए एक विशाल सेना के साथ भेजा। महाराजा बिजली पासी और आल्हा-ऊदल की सेना जो जोगा के नेतृत्व में लड़ाई लड़ रही थी के मध्य घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में आल्हा-ऊदल के साले जोगा की भीषण पराजय हुई। इस पराजय से आल्हा-ऊदल तिलमिला गये और उन्होंने अपनी सेनाओं को संगठित कर महाराजा बिजली पासी पर हमला बोल दिया। लखनऊ से सटे गांजर के मैदान में ( यह स्थान आज गजरिया फार्म के नाम से प्रसिद्ध है।) राजा बिजली पासी और आल्हा-ऊदल की सेनाओं के मध्य लम्बे समय तक भयंकर युद्ध हुआ। कुछ विद्वान मानते है कि इसी गांजर की लड़ाई में वर्ष 1194 में महाराजा बिजली पासी वीरगति को प्राप्त हो गये थे।

जबकि कुछ का मानना है कि महाराजा बिजली पासी ने आल्हा-ऊदल को परास्त कर दिया था। आल्हा-ऊदल अपनी अवशेष सेना के साथ बाराबंकी की ओर पलायन कर गये। जहां से राजा देवामाती पासी ने आल्हा-ऊदल को खदेड़ा और वे भाग कर अपनी राजधानी महोबा पहुंच गये।

Maharaja Chita Pasi

सीतापुर के निर्माता महाराजा छीता पासी

उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा प्रकाशित सीतापुर गजेटियर वाल्यूम ग्स् के पेज 214 पर अंकित है कि सीतापुर जिले का प्राचीन नाम छितियापुर था। छितियापुर नाम महाराजा छीता पासी के नाम पर पड़ा है जिन्होंने छितियापुर को बसाया था। महाराजा छीता पासी कन्नौज के राजा जयचन्द्र के समकालीन थे। महाराजा छीता पासी के किले का भग्नावशेष आज के सीतापुर जिले के पूर्वी छेार पर सीतापुर, लखनऊ राजमार्ग पर प्लाई उड फैक्ट्री के पास आज भी उनकी शौर्य गाथा का जीता-जागता प्रमाण है।

‘छितियापुर‘ नाम का यह अचंल महाराजा छीता पासी के समय से मुगलों के शासन काल तक लगातार चलता रहा। अंग्रेजी शासन काल में सीतापुर का नामकरण हुआ। सीतापुर को मुख्यालय बनाने से पूर्व अंग्रेज अपनी शासन व्यवस्था मल्लापुर से चलाते थे, किन्तु मल्लापुर में आने वाली प्राकृतिक आपदाओं से तंग आकर उन्होंने कालान्तर में सीतापुर को ही अपनी प्रशासनिक व्यवस्था का केन्द्र बना लिया। तभी से छितियापुर का नाम बदल कर सीतापुर हो गया।

महाराजा छीता पासी के कुशल शासन प्रणाली और उनके राज्य की खुशहाली को देख कर कन्नौज का राजा जयचन्द जल उठा। उसने महाराजा छीता पासी को अपनी अधीनता स्वीकार करने का संदेश भेजा। लेकिन महाराजा छीता पासी ने ऐसा करने से इन्कार कर दिया। इससे कुपित होकर जयचन्द ने महोबा के सामन्त आल्हा एवं ऊदल से एक संधि कर ली कि किसी भी तरह छल-बल से राजा छीता पासी के राज्य पर कब्जा कर लिया जाये। आल्हा एवं ऊदल ने अचानक धोखे से राजा छीता पासी के राज्य पर हमला कर दिया। इस छल-बल की लड़ाई में राजा छीता पासी वीरगति को प्राप्त हो गये। कालान्तर में यह इलाका क्षत्रियों एवं मुसलमान शासकों के हाथ होते हुए अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। अंग्रेजों ने मल्लापुर को अपनी प्रशासनिक व्यवस्था का केन्द्र बनाया लेकिन बाद में उसे बदल कर सीतापुर ले आये। यही सीतापुर, छितियापुर का परिवर्तित नाम है।

महाराजा छीता पासी का किला उचित रख-रखाव और देख-भाल के अभाव में मिट्टी के टीले के रुप में लखनऊ से सीतापुर जाने वाले राजमार्ग पर नगर के प्रवेश के पहले प्लाई उड फैक्ट्री के पास स्थित है। इसके एक भाग को काट कर रेलवे लाइन का विस्तार किया गया है। दक्षिण की ओर राजमार्ग का रास्ता निकाल दिया गया है। थोड़ा हिस्सा जो बचा है उस पर सुचौना देवी का एक छोटा सा मंदिर स्थित है, जो महाराजा छीता पासी की अराध्य देवी थीं। इस स्थल के पूर्वी भाग पर जो सरकारी अभिलेखों में बंजर अंकित है, एक व्यापारी ने पेट्रोल पंप लगा लिया है। किले के भग्नावशेष पर महाराजा छीता पासी की मूर्ति को लगाने के अनेकानेक प्रयास हुये। बमुश्किल तमाम प्रदेश सरकार के 20 सूत्रीय कार्यक्रम के अध्यक्ष माननीय श्री राजेन्द्र गुप्त ने महाराजा छीता पासी की एक मूर्ति स्थापित करायी। लेकिन किले के पूर्वी छोर पर स्थित पेट्रोल पंप के मालिक ने उच्च न्यायालय से स्थगन आदेश प्राप्त कर लिया है। अभिलेखों में यह स्थल बंजर अंकित है, लेकिन पेट्रोल पंप का मालिक कहता है कि उसने अंग्रेजी शासनकाल में यह जमींन खरीदी थी। चूंकि यह स्थान दलितों के सम्मान और शौर्य का प्रतीक है, इस कारण सरकार की ओर से इस स्थगन आदेश को निरस्त कराने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है। अखिल भारतीय पासी समाज (पंजीकृत) के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री आर. ए. प्रसाद, राष्ट्रीय महासचिव श्री रामकृपाल और पासी सेवा संस्थान के अध्यक्ष तथा अखिल भारतीय पासी समाज, सीतापुर के अध्यक्ष श्री लालजी भार्गव एवं उनके सहयोगियों के द्वारा महाराजा छीता पासी के किले पर लगातार कार्यक्रम किये जा रहे है और किले को व्यापारी के चंगुल से मुक्त कराने का निरन्तर प्रयास भी कर रहे हैं।

Maharaja Dalchand

राजा डालचन्द एवं राजा बालचन्द

डलमऊ जनपद रायबरेली का एक प्रसिद्ध कस्बा है। इस क्षेत्र में पचासों हजार पासी रहते हैं। लोगों का मुख्य व्यवसाय कृषि है। कुछ लोग सरकारी सेवा में भी हैं।

डलमऊ का नाम पासी राजा डाल के नाम पर पड़ा है। राजा डालचन्द एवं बालचन्द दो भाई थे। इनकी वीरता की ख्याति दूर-दूर तक थी। इनकी सेनाओं के प्रमुख योद्धा एवं सेनानी ताल वीर और करवा वीर ने नसीरूद्दीन को एक युद्ध के दौरान मौत के घाट उतार दिया था।

राजा डालचन्द एवं बालचन्द के बढ़ते प्रभाव से जौनपुर का सुल्तान इब्राहिम शाह शर्की बहुत चिन्तित था। वह छल-बल किसी भी तरह डलमऊ पर कब्जा करने का कुचक्र कर रहा था। उसने डलमऊ के एक बघेल सरदार को तोड़ कर अपनी ओर मिला लिया। उसने यह सुराग करवाया कि डलमऊ पर हमला करने का सबसे अच्छा समय कौन सा होगा। कुछ गद्दारों ने शर्की सुल्तान को खबर दी कि होली के दिन राजघराने के लोग नशे में डूब कर उत्सव मनाते हैं। साथ ही सेना भी बिलकुल लापरवाह रहती है। सभी सूचनाएं एकत्र कर सुल्तान इब्राहिम शाह शर्की ने होली के दिन डलमऊ पर हमला कर दिया। राजा से लेकर सेना तक होली के उत्सव में डूबी हुयी थी। अचानक हमले से उनकी सुरक्षा की व्यवस्था ध्वस्त हो गयी। राजा डालचन्द एवं बालचन्द इस हमले मे वीरगति को प्राप्त हो गये। उनकी रानियों ने भी आत्मदाह कर अपने प्राण त्याग दिये। इतिहासकारों को मानना है कि राजा डालचन्द एवं बालचन्द का राज्य वर्ष 1390 और 1422 ई. के मध्य था।

होली के पावन पर्व पर जौनपुर के शर्की सुल्तान के द्वारा इस बर्बर कान्ड से डलमऊ के पूरे क्षेत्र में शोक की लहर व्याप्त हो गयी। इसी कारण आज 600 वर्ष से अधिक का समय व्यतीत हो जाने के बाद भी डलमऊ के पूरे क्षेत्र में होली के दिन होली का उत्सव नहीं मनाया जाता है।

Maharaja Khaira Pasi

राजा खैरा पासी

महाराजा छीता पासी के वर्तमान किले का क्षेत्रफल सीतापुर जिले के खैराबाद परगने में आता है। यह निर्विवाद सत्य है कि खैराबाद को राजा खैरा पासी ने बसाया था। प्राचीन काल में पराक्रमी राजा विक्रमाजीत के समय से खैराबाद को मासी चैत या मासी चित्र के नाम से जाना जाता था। यह स्थान तत्समय हिन्दुओं के तीर्थ स्थान के नाम से प्रसिद्ध था। इस तथ्य की पुष्टि “ गजेटियर प्राविन्स आफ अवध “ वाल्यूम II - H to M, वर्ष 1877, के पृष्ठ 123 पर प्रकाशित निम्नलिखित उदाहरण से भी होता है:- Khairabad Town Pargana Khairabad, District Sitapur : "The town is said to have been founded by one Khaira, a Pasi, in the first year of the 11th century ................... . Before the above mentioned Khaira Pasi's time the place was known as Masichait (Masi chitra) and was a place of pilgrimage so far back as the region of the great Bikramajeet."

खैराबाद जनपद सीतापुर के विस्तृत क्षेत्र पर पासियों के दशकों से चले आ रहे आधिपत्य के बारे में अंग्रेज लेखक जी. डब्लू. गेयर ने लिखा है कि, " It seems to be admitted in the Sitapur District that the Pasis were once entire masters of Khairabad." अंग्रेज विद्वान श्री एच. आर. नेबिल, ICS ने भी सीतापुर गजेटियर के वाल्यूम XL के पृष्ठ 162 पर लिखा है कि खैराबाद को राजा खैरा पासी ने बसाया था।

राजा खैरा पासी का राज्य 11वीं शताब्दी में था। उन्हीं के समकालीन थे महाराजा बिजली पासी तथा महाराजा सातन पासी। उसी समय लखीमपुर जिले के धौरहरा एवं मितौली आदि क्षेत्रों में भी पासियों का राज्य था। इस प्रकार तत्समय लखनऊ, उन्नाव, हरदोई, सीतापुर और लखीमपुर आदि क्षेत्रों में पासियों के राज्य थे।

तुर्क आक्रमण के कारण कई पासी राजाओ ने अपना राज्य खो बैठे इनमे से एक राजा खैरा पासी भी थे राजा खैरा पासी ने तुर्को की अधीनता स्वीकार करने से मना किया तो तुर्क आक्रमणकारी ने राजा खैरा पासी के राज्य पर आक्रमण कर दिया राजा खैरा पासी ने अपनी सेना के साथ युद्ध भूमि में जा डटे और तुर्को से युद्ध किया इस युद्ध में खैरापासी ने अपना राज्य गवाँ बैठे राजा खैरा पासी का राज्य उत्तर प्रदेश के डिस्टिक सीता पुर के खैरा बाद में था खैरा बाद का नाम राजा खैरा पासी के नाम से ही जाना जाता था राजा खैरा पासी को राजपूत राजाओं से और तुर्क आक्रमण करियो से निरंतर सामना करना पड़ता था

Maharaja Lakhan Pasi

लखनऊ को बसाने वाले वीर शिरोमणि लाखन पासी

वीर शिरोमणि लाखन पासी ने लखनऊ की स्थापना की थी आज जिस टिल्ले पर किंग जार्ज मेडीकल कॉलेज की भव्य ईमारत खड़ी हुई हैं उसी टिल्ले पर राजा लाखन पासी का किला हुआ करता था लाखन पासी का राज्य 10-11 वि शताब्दी में था उनका किला डेढ़ किलो मीटर लम्बा और डेढ़ किलो मीटर चौड़ा था और धरा तल से 20 मीटर ऊँचे पर था लाखन पासी के पत्नी का नाम लखनावती था संभवता इस लिए लखनऊ का नाम लखनावती चलता था राजा लाखन पासी ने लखनावती वाटिका का निर्माण कराया था जिसके पूर्वी किनारे में नाग मंदिर भी बनवा था लाखन पासी नागों के उपासक थे किले के उत्तरी भाग में लाखन कुंड था उसमें साफ पानी भरा रहता था इस पानी का उपयोग राज घरानों के लोग करते थे इतिहास के पन्नो मे अंकित है कि जब सैयद सलार मसूद गाजी लखनऊ पर हमला किया था तो उसके प्रमुख सेना पति सयैद हातिम सैयद खातिम ने महाराजा लाखन पासी के किले गढ़ी जिन्दौर के सिमा पर पड़ाव डाला था वही से किले की सारी जानकारी हासिल किया और तय किया कि राजा लाखन पासी और कसमंडी के राजा कंस पर एक साथ हमला किया जाये ताकि ये एक दूसरे की मदद न कर पाए लाखन पासी कसमंडी के राजा कंस की बहुत पुरानी दोस्ती थी उस समय गाजी मियां और पासीयों की लड़ाई राज पाट की थी परिणाम स्वरूप सैयद सलार मसूद गाजी लाखन पासी और कसमंडी के राजा कंस पर सांम को ठीक होली के दिन हमला किया जब सारी सेना और लाखन पासी आराम कर रहे थे किले पर अचानक हमला देख कर लाखन पासी घोड़े पर सवार हुए सेना लेके युद्ध भूमि में जा डटे यह युद्ध बहुत भयंकर था राजा लाखन की सेना गाजी के सेना पर भूखे शेर की भांति टूट पड़े मसूद के सेना में सभी घुड़ सवार थे महाराजा लाखन को चारों तरफ से घेर लिया तब भी लाखन पासी बहादुरी से लड़ते रहे उन पर तलवारो के हमले हो रहे थे गाजी के एक सैनिक ने धोखे से पीछे से तलवार गर्दन पर मार दिया और उनका सर काट कर जमीन पर गिर गया भीषण युद्ध के बाद उस जगह का नाम सरकटा नाला पड़ा चौपटिया नमक स्थान पर स्थित अकबरी दरवाजे के पास ही युद्ध हुआ था जिस समय राजा का सिर धड़ से अलग हुआ था उस समय सिर कटने के बाद भी राजा का धड़ दोनों हाथ में तलवार लेके युद्ध कर रहा था सिर कटे होने के बावजूद कई सैनिको को मौत के घाट उतार दिया यह कारनामा गाजी के सैनिक देख कर घबड़ा गये ऐसे साहसी वीर पुरुष थे महाराजा लाखन पासी

भारत वर्ष के दुरूह सामाजिक व्यवस्था में दलितों को अपना इतिहास बचाये रखना एक कठिन कार्य है। महाराजा लाखन पासी के इतिहास के साथ भी यही विवाद खड़ा करने का प्रयास किया गया है। इतिहासकारों और विद्धान लेखकों के निष्पक्ष कथनों की उपेक्षा कर यह साबित करने का प्रयास किया जा रहा है कि लखनऊ को महाराजा लाखन पासी ने नहीं बसाया।

सत्यता यह है कि अंग्रेज शासकों ने पूरी छानबीन और गहन पड़ताल के बाद पाया कि लखनऊ को राजा लाखन पासी ने बसाया था। इसी आधार पर ब्रिटिश शासन काल में 1940 के दशक में प्राथमिक विद्यालयों में यह पढ़ाया जाता था कि लखनऊ को महाराजा लाखन पासी नें बसाया था। ये पुस्तकें नवाबी शासन काल के समय में मुंशी नवल किशोर के प्रेस, हजरतगंज, लखनऊ से प्रकाशित हुई थी। खेद है कि आजादी के बाद से प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम से एक कुचक्र के अन्तर्गत इसे निकाल दिया गया है।

Maharaja Mahe Pasi

राजा माहे पासी

चौदहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में, जब दिल्ली पर सुल्तान फिरोजशाह तुगलक का शासन काल था, उस समय रायबरेली जनपद के ऊंचाहार नगर पालिका से थोड़ी दूर पर गोड़वा रोहनियाँ नामक स्थान पर एक छोटा सा गणराज्य था जिसके शासक थे माहे पासी। माहे पासी एक पराक्रमी योद्धा थे। उनमें अपार संगठन शक्ति थी। उन्होंने अपने बल पर एक बलशाली सेना इकट्ठा की और गोड़वा रोहनियाँ में अपना स्वतंत्र राज्य खड़ा किया। उन्होंने नेवारी के राजा को युद्ध में परास्त किया था। इस जीत से उनको नेवारी राज्य का एक बहुत बड़ा भू-भाग मिला था।

कुछ स्थानीय गद्दारों की मुखविरी के कारण दिल्ली के सुल्तान फिरोज शाह तुगलक की सेनाओं से राजा माहे पासी का जबरदस्त मुकाबला हुआ जिसमें राजा माहे पासी वीरगति को प्राप्त हो गये थे। यह युद्ध 1374 ई. में हुआ था। राजा माहे पासी का राज्य 1350 ई. से लेकर 1374 ई. के मध्य था। उनके किले के भग्नावशेष आज भी गोड़वा रोहनियाँ में बिखरे पड़े हैं। संरक्षण के अभाव में पासियों की यह ऐतिहासिक धरोहर नष्ट होने की कगार पर है।

Maharaja Satan Pasi

उन्नाव एवं हरदोई के पराक्रमी वीर महाराजा सातन पासी

सातन कोट, जनपद उन्नाव, तहसील के बांगरमऊ क्षेत्र में, उन्नाव से उत्तर, लगभग 51 कि.मी. की दूरी पर, सन्डीला रोड पर सई नदी के किनारे स्थित है। सन्डीला, जो जनपद हरदोई की तहसील है, से होकर सातन कोट जाने पर इसकी दूरी लगभग 20 कि.मी. पड़ती है। सई नदी के तीर होने के कारण इस क्षेत्र में पानी की उपलब्धता सदैव बनी रहती है। सई नदी जनपद उन्नाव और जनपद हरदोई की सीमा-रेखा है। इस इलाके के चारों ओर पासी जाति के लोगों का बाहुल्य है।

महाराजा सातन पासी के पिता का नाम अभयराज था। अभयराज के सात पुत्रों में राजा सातन पासी सबसे छोटे थे। सातन कोट का वर्तमान किला उनके बड़े भाई श्री सुजान ने बनवाया था। इस कारण प्रारम्भ में यह सुजानगढ़ कहलाता था। बाद में राजा सातन के पराक्रम और राज्य के विस्तार के बाद यह सचान कोट अथवा सातन कोट हो गया।

महाराजा सातन पासी ने न सिर्फ बढ़िया शासन व्यवस्था दी बल्कि अपने राज्य का विस्तार भी किया। उनके पराक्रम से सातन कोट का राज्य उत्तर में खीरी, दक्षिण में पूरे उन्नाव क्षेत्र, पश्चिम में हरदोई की सीमा तक तथा पूरब में महाराजा बिजली पासी के द्वारा शासित राज्यों की सीमा तक फैल गया।

एक विशाल राज्य की संरचना के लिए महाराजा सातन पासी ने अनेंकों किलों का विभिन्न जगहों पर निर्माण कराया। उन्होंने सीमा की सुरक्षा और आन्तरिक व्यवस्था के लिए एक विशाल और प्रभावशाली सेना की स्थापना भी किया।

महाराजा सातन पासी के दो पुत्र थे। एक का नाम श्री त्रिलोक चन्द्र और दूसरे का नाम अभय चन्द्र था। तिलोक चन्द्र ने रायबरेली जिले के तिलोई नगर को बसाया था। तिलोई नाम उन्हीं के नाम पर पड़ा था। अभय चन्द्र ने डोडिया खेड़ा को बसाया था, जो उन्नाव के पुरवा तहसील में है। महाराजा सातन पासी का लखनऊ के पराक्रमी राजा बिजली पासी के साथ बहुत ही मधुर संबद्ध थे।

महाराजा सातन पासी कन्नौज के राजा जयचन्द के समकालीन थे। राजा जयचन्द का राज्य सन् 1170 ई. से लेकर सन् 1194 ई. तक था। इतिहासकार यह मानते हैं कि राजा सातन पासी का राज्य सन् 1150 ई. से सन् 1202 ई. के मध्य था।

महाराजा सातन पासी एक स्वतंत्र राजा थे। उन्होंने अपने पराक्रम और कार्य कुशलता के आधार पर अपने राज्य का बहुत विस्तार कर लिया था। कन्नौज के क्षत्रिय राजा जयचन्द उनके बढ़ते प्रभाव से ईष्र्या भाव रखने लगा। उसने राजा सातन पासी को संदेश भेजा कि वे उसकी अधीनता स्वीकार कर लें और उसे कर देना प्रारम्भ कर दें। स्वाभिमानी राजा सातन पासी ने जयचन्द की अधीनता स्वीकार करने और किसी प्रकार का कर देने से साफ मना कर दिया। अंग्रेज विद्वान आर. वी. रसेल ने अपनी Tribes and Castes of the Central Provinces of India " वाल्यूम IV के पृष्ठ 380-383 पर लिखा है कि, " All through Oudh, Mr Crook states, They have tradition that they were Lords of the country, and that their Kings rogued in the district of Khiri, Hardoi and Unnao. Ramkot (Satankot) where the town of Bangermau in Unnao now stands is said to have been one of their chief strongholds. The last of the Pasi Lords of Ramkot (Satankot) Raja Sathar (Raja Satan) threw off his allegiance to Kanauj and refused to pay tributes."

कन्नौज नरेश जयचन्द नें एक विशाल सेना राजा सातन पासी को पराजित करने के लिए भेजी। महाराजा सातन पासी ने अपने राज्य और जनता की सुरक्षा के लिए आतातायी को पराजित करने के उद्देश्य से अपनी ओर से भी एक विशाल सेना जंग के मैदान में उतारा। दोनों सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध हुआ। अन्त में कन्नौज के राजा जयचन्द की सेनाओं की करारी हार हुई। हारी हुई सेना कन्नौज की ओर पलायन कर गयी। कुछ इतिहासकार इस मत के है कि सचान कोट की इस लड़ाई में कन्नौज नरेश जयचन्द का पुत्र हरीशचन्द्र गम्भीर रूप से घायल हो गये थे। जिनकी बाद में कन्नौज में मृत्यु हो गयी।

इस भयानक पराजय से राजा जयचन्द बिलकुल बौखला गया। उसने ऐन-केन-प्रकरेण राजा सातन पासी को हराने एवं उनके राज्य को तहस-नहस करने की ठान ली। शीघ्र ही उसको अवसर भी मिला। महोबा के परमाल वंश के शासकों ने आल्हा एवं ऊदल नामक मशहूर लड़ाकों को अपने राज्य से निकाल दिया। कन्नौज के राजा जयचन्द ने उनको अपने यहां शरण दिया।

उसने आल्हा एवं ऊदल को यह आश्वासन दिया कि यदि वो राजा सातन पासी को पराजित कर दें तो वह उनको मालामाल कर देगा। उसने आल्हा एवं ऊदल को यह भी कहा कि कन्नौज की सेना उनके अधीन इस अभियान में रहेगी। आल्हा एवं ऊदल जिन्हें “वानापार हीरोज” के रूप में जाना जाता है अपनी बहादुरी और युद्ध कौशल के लिए प्रसिद्ध थे। उन्होंने एक बड़ी सेना के साथ राजा सातन पासी के राज्य पर हमला कर दिया। राजा सातन पासी और कन्नौज की सेनाओं के बीच जबरदस्त मुकाबला हुआ।

अधिकांश विद्वान यह बात मानते हैं कि सन्डीला के गांजर के मैदान में दोनों ही सेनाओं के मध्य घमासान युद्ध हुआ। जिसमें राजा सातन पासी के सेनाओं की जीत हुई थी। कुछ विद्वान इस मत के हैं कि दिल्ली के बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने विश्वासपात्र सेनापति मुहम्मद बखतियार खिलजी के नेतृत्व में एक विशाल सेना राजा सातन पासी को हरा कर उनके राज्य पर कब्जा करने हेतु भेजा था। सन्डीला के मैदान (गांजर) में राजा सातन पासी और दिल्ली के बादशाह की सेनाओं के मध्य जबरदस्त युद्ध हुआ। इस लड़ाई में दिल्ली की सेनाओं का पलड़ा भारी पड़ा और अन्तोगत्वा महाराजा सातन पासी ने अपने राज्य एवं जनता की सुरक्षा हेतु लड़ाई लड़ते-लड़ते अपने को बलिदान कर दिया।

Maharaja Suheldev Pasi

महापराक्रमी महाराजा सुहेलदेव पासी की वीरगाथा

सूर्य एवं चन्द्रवंशी राजाओं की भांति पासी जाति के राजाओं का इतिहास भी उनकी यशोगाथा से भरा पड़ा है। इसी जाति में महाराजा सुहेलदेव पासी हुये। जिनके पिता का नाम मंगलध्वज था। राजा सुहेलदेव पासी का जन्म सन् 996 में हुआ था।

सैयद सालार मसऊद गाजी, जो ईरान के बादशाह का भान्जा था (शर्की मान्यूमेन्ट के पृष्ठ 12.3 पर अंकित है कि सैयद सलार मसऊद गाजी महमूद गजनवी का भांजा था), ने भारतवर्ष पर हमला कर दिया। सैयद सालार मसऊद गाजी युद्ध कौशल में माहिर एक पराक्रमी योद्धा था। उसने भारतवर्ष में दिल्ली के शासक को हराया। वहां से वह खुर्जा, अलीगढ़, सीतापुर के रास्ते होता हुआ बहराइच पहुंचा। बहराइच तक के रास्ते में पड़ने वाले समस्त राजाओं को उसने परास्त कर दिया। बहराइच में तत्समय राजा सुहेलदेव पासी का राज्य था।

राजा सुहेलदेव पासी 21 अधीनस्थ राजाओं के सरताज थे। सैयद सालार मसऊद गाजी के बहराइच आक्रमण का मुकाबला महाराजा सुहेलदेव पासी ने अपनी संगठित सेना के साथ किया। 10 जून सन् 1034 ई. को दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ। अन्तोगत्वा महाराजा सुहेलदेव पासी के तीर के अचूक निशाने ने सैयद सालार मसऊद गाजी का काम तमाम कर दिया। गाजी की मौत के साथ ही साथ उसके लाखों सैनिक भी महाराजा सुहेलदेव पासी की सेना के द्वारा मारे गये। सैयद सालार मसऊद गाजी को मृत्योपरान्त उसके अनुचरों ने मृत्यु स्थल पर ही दफना दिया।

इस तथ्य का उल्लेख जनपद बहराइच के जिला गजेटियर के वाल्यूम XIV (ब्रिटिश कालीन) के पृष्ठ संख्या 116 एवं 117 में इस प्रकार किया गया है, "Suhaldeo turned the tide of victory. Masand was over thrown and slain with all his followers on the 18th day of Rajab-ul-Murajab in 424 Hijri or 1034 A.D. He was buried by his servants in the spot which he has chosen his resting place."

कालान्तर में दिल्ली के बादशाह फिरोज शाह तुगलक ने सन् 1340 और 1342 ई. के मध्य सैयद सालार मसऊद गाजी की कब्र का जीर्णोद्वार करके एक पक्का मकबरे का निर्माण कराया। इस युद्ध के पश्चात् महाराजा सुहेलदेव पासी ने विजय पर्व मनाया। उन्होंने अपनी राजधानी श्रावस्ती में कई सुन्दर निर्माण कराये।

सैयद सालार मसूद गाजी का प्रथम आक्रमण सन् 1033 ई. में हुआ था। अवध गजेटियर वाल्यूम 11, 1877 में उल्लेखित है कि, " The first invasion of Sayyed Masand in A.D. 1033 and made their uncompelled settlement as in Nagram (a part of District Lucknow) and Amethi (a portion of District Sultanpur, U.P.)" सैयद सालार मसूद गाजी ने दूसरा आक्रमण सन् 1034 ई. में किया था। उपलब्ध साक्ष्यों से यह पता चलता है कि महाराजा सुहेलदेव पासी का शासन काल सन् 1020 से लेकर सन् 1044 ई. तक था, महाराजा सुहेलदेव पासी की मृत्यु सन् 1044 ई. में हुई थी।

बहराइच जिला गजेटियर के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि महाराजा सुहेलदेव पासी का राज्य पश्चिम में सीतापुर से लेकर पूरब में गोरखपुर तक सैकड़ों किलोमीटर के विस्तृत क्षेत्र में फैला हुआ था। कृपया संदर्भ हेतु ब्रिटिश कालीन, जनपद बहराइच का गजेटियर वाल्यूम 14 के पृष्ठ 116 व 117 देखें।

बहराइच जिले में स्थित किलों के भग्नावशेष, टीले और गढ़ी के खंडहर महापराक्रमी महाराजा सुहेलदेव पासी की वीरता के जीते-जागते प्रमाण हैं। अनुरक्षण के अभाव में ये सब प्रायः नष्ट होने के कगार पर हैं।

Virangna Udadevi Pasi

आजादी की अमर शहीद वीरांगना ऊदादेवी पासी

वीरांगना ऊदादेवी पासी स्व0 बाबू राम सहाय चौधरी पूर्व एम0 एल0 सी0 की परदादी अर्थात ग्रेट ग्रैन्ड मदर थी। उनके वंशज आज भी हुसैनगंज चौराहा, लखनऊ के पास निवास करते हैं।

बात भारतवर्ष में अंग्रेजी शासन के विरूद्ध आजादी की लड़ाई के समय की है। तत्समय अवध के नवाब वाजिद अली शाह की सेना में “पासी पल्टन” नाम की फौज हुआ करती थी। नवाब वाजिद अली शाह के लखनऊ से जाने के पश्चात् सिकन्दरबाग का इलाका पासी रक्षक महिलाओं की देख-रेख में था। सर कालिन कैम्पवेल इस क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए अपना जाल बिछा रहा था। 16 नवम्बर 1857 को अंग्रेजी सेनाओं नें सिकन्दर बाग को चारों ओर से घेर लिया था, फलस्वरूप अंग्रेजी सेना और क्रान्तिकारियों की सेना के बीच घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया।

युद्ध के परिपेक्ष्य में श्री जी.पी. मलिसन नें “इन्डियन म्यूटिनी” नामक पुस्तिका के वाल्यूम प्ट के पृष्ठ संख्या 132 में लिखा है कि “क्रान्तिकारियों नें अपनें जान की बाजी लगाकर पूरी वीरता के साथ युद्ध किया हमारी सेना रास्ता चीरती हुई अन्दर घुस आई तब भी संग्राम बन्द नहीं हुआ”। एक-एक कोने के लिए संग्राम होता रहा।”

इस युद्ध में रक्षक पासी महिलाऐं जनानी फौजों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ रही थी। फोर्विस मिचाईल नें अपनें संस्मरणों में वीरांगना ऊदादेवी पासी की वीरता का भरपूर वर्णन किया है। इस वीरांगना के बारे में उसनें 93वीं बटालियन के अंग्रेज सिपाही से सुना था।

लड़ाई के दिन भीषण गर्मी थी। गोलाबारी से पूरा क्षेत्र तप उठा था। अंग्रेजी सेना की 53वीं बटालियन और 93वीं बटालियन नें अधिकांश क्रान्तिकारियों का वध कर दिया था। वहीं सिकन्दर बाग में एक बड़े पीपल के पेड़ के नीचे बड़े-बड़े मिट्टी के घड़ों में पीनें का पानी भरा था। अपनें संगी साथियों के मारे जानें के तुरन्त बाद वीरांगना ऊदादेवी पासी उसी पीपल के पेड़ पर अपनें हथियारों के साथ लपक कर चढ़ गयी और उन्होंनें अपनें आपको पीपल की पत्तियों और डालियों से छुपा लिया, फिर उन्होंनें मोर्चा सम्हाल लिया और पेड़ के नीचे आनें वाले अंग्रेज सिपाहियों को चुन-चुन कर मारना शुरू कर दिया। देखते ही देखते उन्होंनें 36 से अधिक सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया। वे तब तक अंग्रेजों का वध करती रहीं जब तक उनकी गोली-बारूद समाप्त नहीं हो गयी।

इस बीच मेजर डाउसन उधर आ गया, उसने देखा कि 36 अंग्रेजी सैनिक पेड़ के पास मरे पड़े ह,ै तो उसनें कैप्टेन वैलेस को आवाज देकर बुलाया। कैप्टन वैलेस एक चतुर सेनानायक था। उसनें मेजर डाउसन को चिल्ला कर बताया कि पीपल के पेड़ पर से किसी के द्वारा इन अंग्रेजी सिपाहियों की हत्या की गयी है। उसनें तुरन्त निशाना साधा और वीरांगना ऊदादेवी पासी के ऊपर प्राण घातक फायर किया। चूंकि वीरांगना ऊदादेवी पासी के पास गोलियां एवं कारतूस समाप्त हो गये थे। अतः वे जवाबी फायर नहीं कर सकीं। गोली लगते ही वे पेड़ से नीचे गिरी और उनकी इहलीला समाप्त हो गयी। गोली लगनें के समय वीरांगना ऊदादेवी पासी लाल जैकेट पहनें हुयी थीं। जब वे पेड़ से नीचे गिरी तो जैकेट का ऊपरी भाग खुल गया। तब कैप्टेन वैलेस एवं मेजर डाउसन को पता चला कि वीरगति को प्राप्त क्रान्तिकारी एक महिला है। कैप्टेन वैलेस एक वीर क्रान्तिकारी महिला की वीरता पर आश्चर्य चकित हो, जोर-जोर से रोनें लगा और कहनें लगा कि यदि मुझे पता होता कि पेड़ की ओट में छुप कर अंग्रेजी सेना को हताहत करनें वाला क्रान्तिकारी एक वीरांगना महिला है तो चाहे मुझे हजार बार मरना पड़ता किन्तु मैं गोली नहीं चलाता।

फोर्बस मिशायल (William Forbes Mitchell) ने अपनी पुस्तक "Reminiscences of the Great Mutiny" के पृष्ठ - 57,58 पर इसका उल्लेख इस प्रकार किया है:- As told by Sergeant William Forbes Michell of tales 93rd High landers :- "In the centre of the inner court of the Secunderbagh there was a large Peepul tree with a bushy top, round the foot of which were set a number of jars full of cool water. When the slaughter was almost over many of our men went under the tree for the sake of its shade, and to quench their burning thirst with a drought of the cool water from the jars. A number, however, lay dead under this tree, both of the 53rd and the 93rd, and the many bodies laying in the particular spot attracted the notice of Captain Dowson, After having carefully examined the wounds, he noticed that in every case the men had evidently been shot from above, He there upon stepped out from beneath the tree, and called Captain Tucker Wallace to look up if he could see any one in the top of the tree, because all the dead under it had apparently been shot from the above. Wallace had his rifle loaded and stepping back he carefully scanned the top tree, He almost immediately called out. I see him Sir ! And holding his rifle he repeated aloud. " I'll pay vows now to the Lord, Before His people all. " He fired and down fell a body, dresses in a tight fitting red Jacket and rose coloured silk trouser and the breast of the jacket bursting open with the fall, showed that the wearer was a women, when the Wallace saw that the person whom he shot was a women, he burst in to tears exclaiming. If I had known it was a women. I would rather have died a thousand deaths than have harmed her. "Reminiscences of the great Mutiny" by William Forbes. Mitechell. .............a women who perched on a large peepul tree in the court of Sikandar Bagh shot a number of British soldiers and was shot in her turn.

वीरांगना ऊदादेवी पासी की एक वक्ष प्रतिमा, जो सीमेन्ट की बनी थी, 30 जून 1973 को लखनऊ के तत्कालीन मेयर डा. दाऊजी गुप्त के प्रयास से सन् 1857 ई. की स्वतंत्रता संग्राम समारोह समिति के द्वारा सिकन्दरबाग में स्थापित करायी गयी थी। वीरांगना ऊदादेवी पासी की एक आदमकद कांस्य मूर्ति उत्तर प्रदेश सरकार के द्वारा सिकन्दरबाग चौराहा, लखनऊ (उ.प्र.) में लगभग बारह लाख रुपये की लागत से लगवायी गयी है। इन दोनों ही स्थानों पर लोग 30 जून और 16 नवम्बर को भारी संख्या में एकत्र होकर देश की प्रथम महिला शहीद वीरांगना ऊदादेवी पासी को अपने श्रृद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।

किसी शायर ने ठीक ही कहा है कि:-

शहीदों की मजारों पर लगेंगे हर बरस मेले।
       वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशाँ होगा।।

(उत्तर प्रदेश पर्यटन निदेशालय से साभार)